मायूस बचपन

नमस्ते दोस्तों,

मेरी आज की ये कविता है उस मासूम बचपन के बारे में जिसकी मासूमियत को वक़्त, भूख और हालात के वजह से कभी - कभी वक़्त से पहले बड़ा हो जाना पड़ता है। मगर हमारी साझा कोशिशों की वजह से कई मायूस चेहरों की मासूमियत फिर से वापस लायी जा सकती है। ये कविता मेरा निजी अनुभव है एक मासूम बच्ची के बारे में जो मैं आप सबको बताना चाहती हूँ, और ये प्रार्थना भी करना चाहती हूँ कि अगर हम एक भी रोते हुए बच्चे कि हंसी वापस ला पाए तो इससे बड़ा कोई पुण्य नहीं .......

 

“मायूस बचपन”

 

हाँ, मैंने उसे देखा है,

गहरी आँखों से मुझे निहारते हुए।

हाँ, मैंने उसे देखा है,

सूखे, फटे होठों से मुझे पुकारते हुए।।

 

उसके होंठ सूखे पत्ते कि तरह

फड़फड़ा रहे थे,

क्या कुछ खाने को दोगी,

बस इतना बड़बड़ा रहे थे।

 

हाँ मैंने उसे देखा है,

मेरी ओर हाथ बढ़ाते हुए।

हाँ मैंने उसे देखा है,

हाथो के अनेक घावों को छुपाते हुए।।

 

उफ़ ! ये कठोरता उसके हाथो की,

ये उम्र ने नहीं, वक़्त ने दिए होंगे।

हाय ! ये दर्द ज़माने का दिया,

उस मासूम बिटिया ने कैसे सहे होंगे ?

 

ठहर गयी थी मै कुछ पल,

समाज की कठोरता देखकर।

'' क्या कुछ खाने को दोगी''

चौंका दिया उसने मुझे ये कहकर।।

 

मैंने जो भी था उसको,

प्यार से परोस दिया।

पर क्या ये काफी था,

मैंने जो कुछ था दिया।।

 

हाँ मैंने उसे देखा है,

बदहवास सी दोनों हाथो से खाते हुए।

हाँ मैंने उसे देखा है,

उसकी मुस्कान से मेरा धन्यवाद् कहते हुए।।

 

आज तो उसने अपना पेट भर लिया,

पर कल क्या ?

दिन फिर निकलेगा, फिर रात होगी,

फिर एक बार ये भूख की आग जलेगी।

 

क्या हर बार मिल जायेगा कोई,

प्यार से निहारने वाला।

क्या हर बार मिल जायेगा कोई,

अपनेपन से खिलाने वाला।।

 

गर नहीं ! तो आओ ये इरादा किया जाये,

भूखा कोई सोये खुद से ये वादा किया जाये।

प्यार की धारा को हर दिल में बहाया जाए,

आओ किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए।

आओ किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए...........

 

धन्यवाद्।

सोनिया तिवारी


टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

झूठी हंसी

कोरोना और मानवता

आखिर ये किसी की बेटी है