मजदूर और महामारी

नमस्ते दोस्तों,

मैं अपनी इस रचना के माध्यम से आप सबको हमारे मजदूर भाइयों के उस मौजूदा हालात से अवगत कराना चाहती हूँ, जो कोरोना जैसी महामारी आने के बाद उन्होंने झेला है। वैसे तो इस बीमारी ने पूरी दुनिया को असहनीय तकलीफ दिया है, पर अचानक से आने वाली परिस्थितियों की वजह से जो दर्द उन्होंने सहा है, बस उसी को मैं यहाँ बताना चाहती हूँ...........

 

“मजदूर और महामारी”

 

अपना गांव और परिवार, छोड़के अपना घर - द्वार

मजदूरी करने हम चले शहर में, देखे थे सपने हज़ार

अरमानों के सिवा हम साथ कुछ न लाये थे,

इन महानगरों में हम, बस रोटी कमाने आये थे।

 

जब काम मिला, अपनी मेहनत का परिणाम मिला

हम मजदूरों के मन को तनिक जरा विश्राम मिला,

 भाई - बहनों की शादी करवाई,

 घर की भी मरम्मत करवाई।

 

जब तीज - त्यौहार आता था, तब हमको बुलाया जाता था,

अपने घर में तब हम परदेशी बन कर जाते थे,

माँ - बाप के संग त्यौहार मनाकर, वापस शहर लौट जाते थे।

 

जीवन की खुशियों में तब एक दुःख ने डाका डाला

आयी कोरोना महामारी,सुख सारा मिटा डाला,

भूख, बीमारी और छत की विपदा से,

हमारा पहली बार पड़ा था पाला

 

सुनी हो गयी शहर की सड़के

हाट - बाजार पड़े थे सुने,

पड़ा बैठना छुपकर सबको घर में,

अपनी - अपनी जान बचाने।

 

पर हम सब तो मजदूर है भाई

न शहर में हमारा कोई ठौर - ठिकाना,

ना अब हमारी जेब में पैसे है,

ना घर में है एक अन्न का दाना।

 

जो भड़की पेट में भूख की ज्वाला

तब भागे गांव को हम बेचारे,

वहाँ माँ - बाप की बूढ़ी आँखे रोये,

यहाँ हम भटके हैं मारे - मारे।

 

 मजदूरों की भूख - प्यास का

 सरकार ने किया ब्यवस्था था,

 पर राजनीति की ओछी मानसिकता का,

उस पर भी हुआ कब्ज़ा था।

 

भोले - भाले मजदूरों को, बहुत दिनों तक छला गया,

पर भूखे पेट लाचारी का ये दर्द ना हमसे सहा गया।

हम मेहनतकश हैं हमसे ये, अब छल सहा ना जायेगा,

अब शहर से गांव की दूरी को इन पैरो से नापा जायेगा।।

 

था लदा बोझ गृहस्थी का सर पर,

अब अपना बसेरा उजड़ा था,

 गर्भवती बीवी की उंगली पकड़े,

 मेरा प्यारा बेटा खड़ा था।

 

भरी दोपहरी, तपती सड़कें, लोगों की भीड़ थी, मेला था

लेकिन इतनी भीड़ में भी, यहाँ सबका जीवन अकेला था।

 

हम जब उनके शहरो को चमकाते थे

तब हमको परदेशी कहा गया

पर आज "प्रवासी मजदूर" का हमको

एक नया तमगा दिया गया।

 

धधक रही थी पेट की ज्वाला

सींक रही थी राजनीति की रोटी,

हैं सौगंध कहीं नहीं जायेगे अब,

हम छोड़के अपने गांव की मिट्टी।। 

 

धन्यवाद,

सोनिया तिवारी


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